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Umair Najmi: Urdu Poet

  • Writer: nupur maskara
    nupur maskara
  • Apr 29
  • 1 min read

मुझे पहले पहल लगता था ज़ाती मसअला है

मैं फिर समझा मोहब्बत कायनाती मसअला है 



एक तारीख़-ए-मुकर्रर पे तू हर माह मिले 

जैसे दफ़्तर में किसी शख़्स को तनख़्वाह मिले 

मिलते हैं मुश्किलों से यहां हम-ख़याल लोग

तेरे तमाम चाहने वालों की ख़ैर हो


कमरे में सिगरेटों का धुआं और तेरी महक

जैसे शदीद धुंध में बाग़ों की सैर हो

ये रूह बरसों से दफ़्न है तुम मदद करोगे

बदन के मलबे से इसको ज़िंदा निकालना है 



निकाल लाया हूं एक पिंजरे से एक परिंदा

अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है 

मैं ने जो राह ली दुश्वार ज़ियादा निकलीमेरे अंदाज़े से हर बार ज़ियादा निकलीतमाम दिन इस दुआ में कटता है कुछ दिनों सेमैं जाऊँ कमरे में तो उदासी निकल गई हो

मैं बरश छोड़ चुका आख़िरी तस्वीर के बा'दमुझ से कुछ बन नहीं पाया तिरी तस्वीर के बा'द ये तीस बरसों से कुछ बरस पीछे चल रही हैमुझे घड़ी का ख़राब पुर्ज़ा निकालना है



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